गुजर रहा है वो वक़्त बीस का,
गमों के बादल ढाए जिसने
मानव जाति के इतिहास में आया
अरमानों के लगे आंसू रिसने
सूक्ष्म सी एक काया ने
कोने कोने को किया तबाह
घर बैठे चिंतन में सब
शाम रात या हो सुबह।
पड़ा रहा हर एक छोर सूना
भय का जो हुआ फैलाव
पथ पथ पे सन्नाटे ने
सोच सोच पे किया दबाव।
अपनों से बनाने को दूरी
सबको कर दिया मजबूर
अतीत की दुहराकर छाया
बलवान रहा वो इतना क्रूर।
मंद मंद हम आगे बढ़कर,
बीस के अंत तक हैं आये
मुख पर बांध रहे हैं चीर
पड़ ना पाए उसके साये।
आशाओं में इक्कीस की अब
खुशियों को जुटाना है
सारे जो दर्द सहे सबने
जिंदादीली से मिटाना है।।
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